LIC 10 ART-1 (बच्चे बन गए टीचर )
बच्चे बन गए टीचर
दीक्षित जी एक सरकारी विद्यालय में हिंदी शिक्षक हैं। उन्होंने अपनी कक्षा की एक रोचक रणनीति को हमारे साथ साझा किया –
मैं इस बारे में काफी सोच-विचार करता था कि हिंदी में बच्चों द्वारा की जाने वाली ‘गलतियों’ की ओर उनका ध्यान कैसे आकर्षित करवाऊँ। दरअसल मैंने यह पाया था कि ‘गलतियाँ’ (हिंदी विषय में भाषायी यानी मात्राओं की त्रुटियाँ) वास्तव में सीखने की प्रक्रिया का एक पड़ाव होती हैं जिन्हें प्रत्येक बच्चा स्वयं ही ठीक कर लेता है यदि उस ओर उसका ध्यान दिलवाया जाए। बच्चों का उस ओर ध्यान दिलवाना ही सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य है। मुझे याद था कि जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो मेरे शिक्षक प्रत्येक गलती को दस बार सही लिखने के लिए कहते थे। मैंने भी इसी तरीके को आजमाने का निश्चय किया। लेकिन मैंने पाया कि बच्चा एक-दो बार तो अपनी त्रुटि को सही करके लिख लेता है लेकिन उसके बाद फिर पूरी पंक्ति उसी त्रुटि से भरी होती है। इसमें समय भी बहुत अधिक लगता है, यह उबाऊ भी बहुत है और यह गतिविधि किसी छोटी-सी त्रुटि को एक अपराध के रूप में बच्चों के सामने परोसती है जिसका दंड होता है उसे ठीक करके बार-बार लिखना। यानी किसी त्रुटि को ठीक करके बार-बार लिखवाना बच्चों का ध्यान आकर्षित करने का उपयुक्त तरीका साबित नहीं हुआ। मैं किसी ऐसे तरीके की खोज में था जिसमें बच्चे तथाकथित त्रुटि को खेल-खेल में स्वयं पहचान लें और जो उनमें अपराध-बोध नहीं बल्कि आत्म-विश्वास से भर दे।मैंने इसके लिए एक नई रणनीति सोची। मैंने कक्षा के सभी बच्चों की वर्तनी की त्रुटियों को देखा, उनकी सूची बनाई और बच्चों से कहा – मैं ब्लैक-बोर्ड पर कुछ लिखने वाला हूँ। आप सबको उसे देखकर यह बताना है कि मेरे लिखे हुए शब्दों में कहाँ गलती है। साथ ही सामने आकार बोर्ड पर मेरी उस गलती को ठीक भी करना है।
बच्चे यह सुनकर खुश हो गए। उन्हें ऐसे चुनौतीपूर्ण कार्यों में आनंद आता है। “हम अपने टीचर की गलती पकड़ेंगे” यह विचार उनके लिए बहुत उत्साहवर्धक था, भले ही वे जानते थे कि उनके शिक्षक वे गलती जानबूझकर कर रहे हैं।
प्रत्येक त्रुटि को उन्होंने पहचान लिया। सीधी -सी बात है। प्रत्येक बच्चा प्रत्येक त्रुटि तो करता नहीं है। इसलिए कक्षा में उन्हें पहचानने और ठीक करने वाले बच्चे काफी होते थे और जब वे त्रुटि को ठीक करके बोर्ड पर लिखते थे तो उन बच्चों का ध्यान भी उनकी तरफ जाता था जिनका उस ओर पहले ध्यान नहीं गया था।
यह तरीका काफी सफल रहा। अब मैंने इसे बार-बार उपयोग में लाना शुरू कर दिया। शब्दों के बजाय अब वाक्य लिखने शुरू कर दिए। इससे वे विराम-चिह्नों के उपयोग के प्रति भी सतर्क हो गए। मैंने यह भी पूछना शुरू किया कि कोई गलती मैंने की है तो उसके पीछे मेरी सोच क्या रही होगी। मैंने पाया कि अब वे उन गलतियों को दोहराते नहीं हैं जो वे श्यामपट पर ठीक कर चुके हैं।
यह तरीका कक्षा में गलतियों को एक खेल बना देता है। इसमें बच्चे शिक्षक की भूमिका में आ जाते हैं और शिक्षक उनका स्थान ले लेता है। इससे मुझे बच्चों की सोच को जानने का भी मौका मिला कि वे यदि कोई शब्द नए तरीके से लिख रहे हैं तो उसका कारण क्या है। इस तरीके में सभी बच्चे एक समान स्तर पर खड़े होते हैं। सबके पास समान अवसर होते हैं गलतियों को सुधारने के। जब वे किसी गलती को सुधारते हैं तो यह उनमें एक नया आत्मविश्वास जागा देता है – मैं भी जानता हूँ, मैं भी जानती हूँ। यह भावना उस परंपरागत सोच के बिल्कुल उलट है जो मानती है कि बच्चे कुछ नहीं जानते, वे गलतियों का पुतला हैं। अब मेरी कक्षा के बच्चे कक्षा की प्रक्रियाओं में पहले से अधिक भाग लेने लगे हैं, उनमें कक्षा और पढ़ाई को लेकर ‘स्वामित्व की भावना’ या गई है। इस तरीके ने मेरे बच्चों को नए उत्साह और जोश से भर दिया। अब वे गलतियों के डरते या शरमाते नहीं हैं बल्कि उन्हें बताते हैं और ठीक कर लेते हैं।
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